जबलपुर प्रशासन का फैसला: आखिर कैसे बदन में फूली समाएंगी परदेसी तंदूर की रोटियां?

अजय बोकिल
बात भेड़ाघाट वाले उस जबलपुर की है, जहां जिला प्रशासन ने ढाबों और होटलों में रोज सुलगने वाले देसी तंदूर पर यह कहकर रोक लगा दी है कि इससे प्रदूषण फैलता है और तंदूर में पकी रोटियां इंसानी सेहत के लिए नुकसानदेह हैं। प्रशासन के इस आदेश के बाद

तमाम होटल, ढाबा और रेस्टारेंट संचालकों में हड़कंप और नाराजी है, क्योंकि लोग इनमें ज्यादातर तंदूरी रोटी और नान खाने ही आते हैं, गैस या चूल्हे पर सिकी रोटियां तो घर में बनती ही हैं।

प्रशासन ने फैसला इस कड़ाई के साथ लागू किया है कि अगर किसी ने इसका उल्लंघन किया तो 5 लाख रुपये जुर्माना लगेगा। वैसे तंदूर में प्रदूषण खोजने वाला जबलपुर मध्यप्रदेश का शायद पहला जिला है। जिला प्रशासन के तहत खाद्य विभाग ने शहर के सौ से अधिक होटलों को नोटिस जारी कर ताकीद की है कि वो अपने यहां लकड़ी और कोयले वाले तंदूर न सुलगाएं। होटल संचालकों से कहा गया है कि वो इसकी बजाय एलपीजी या इलेक्ट्रिक तंदूर जलाएं।

यह आदेश कुछ वैसा ही है कि लोगों को पापड़ की जगह पिज्जा खाने के लिए मजबूर किया जाए। वैसे इस फरमान से लोग तंदूरी चाय से भी महरूम हो गए हैं। प्रशासन का तर्क है कि यह निर्णय शहर में हवा की क्वालिटी सुधारने के उद्देश्य से लिया गया है। यह एयर क्वालिटी सुधार अभियान केन्द्र सरकार के निर्देश पर चलाया जा रहा है, लेकिन लोग इस पर्यावरण सुधार अभियान से सकते में हैं।

दरअसल तंदूर हमारी जिंदगी में ही नहीं, संस्कृति में भी इस कदर शामिल हो गया है कि तंदूर की जलना मुहावरा बन चुका है। देसी तंदूर मिट्टी का बना एक बड़ा ओवन होता है, जिसे लकड़ी या कोयले की आग से गरम कर उसमें रोटियां सेंकी जाती हैं। मैदे या आटे से बनी इन रोटियों का स्वाद तवे पर सिकी और बेली हुई रोटियों से अलग होता है। ये वो रोटियां हैं, जो गरम तंदूर की तरह गरमा गरम ही खाई जाती हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप में तंदूर की लोकप्रियता

तंदूर न केवल भारत बल्कि समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में लोकप्रिय है। रोटियों के साथ इसमें मीट भी भूना जाता है। तंदूर शब्द फारसी के ‘तनूर’ से बना है। अरबी में भी यह तन्नूर कहलाता है। लेकिन इसका वजूद पांच हजार साल पुरानी मोहन जोदड़ो सभ्यता में मिलता है। रोटी बेलने की कला विकसित होने के पहले तक लोग इसी तरह तंदूर में रोटियां सेंकते रहे होंगे। यूं तंदूर कई तरह का होता है, लेकिन हमारे यहां आम तौर पर पंजाबी तंदूर ही ज्यादा प्रचलित है। पंजाब में तो सांझा चूल्हा होता है, जो वास्तव में सार्वजनिक तंदूर ही होता है, जिस पर कोई भी रोटियां सेंक सकता है।

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जिला प्रशासन होटल वालों को सलाह दे रहा है कि होटल वाले देसी तंदूर की जगह इलेक्ट्रिक ओवन का इस्तेमाल करें ताकि धुआं न हो। अब धुंआ ही न होगा तो तंदूर में रोटी कम मरीज को दिया जाने वाला बेस्वाद दलिया ही बनेगा। होटल वालों और तंदूरी रोटी के दीवानों की यही समस्या है। यूं बनाने को तो गैस या इलेक्ट्रिक ओवन में मालवा की खास बाटियां भी बनती हैं, लेकिन उसके जायके में वो मजा कहां, जो कंडों पर सिकीं बाटियों में होता है।

बेशक, इलेक्ट्रिक या गैस ओवन से तकनीकी क्रांति हो सकती है, लेकिन खाद्य क्रांति के मूलभूत तत्वों को मारकर। क्योंकि तंदूर में बने पकवान किसी मरीज को जिंदा रखने के लिए दी जाने वाली खुराक नहीं है, वह आत्मा को तृप्त करने वाले स्वाद का उत्सव भी हैं। हकीकत में तंदूर हमारे पेट के साथ-साथ संस्कृति का भी हिस्सा बन चुका है। उत्तर पश्चिम भारत में इसके बगैर पार्टियां अधूरी हैं और वैष्णव भोजनालयों को छोड़ दें तो तंदूरी हर होटल ढाबे की शान है। बल्कि यह कहना गलत न होगा कि सुलगे तंदूर की महक ही होटल के खाने के स्वाद का आभास दे देती है।

भारत में इस्लाम के आगमन के साथ तंदूर का चलन और बढ़ा। तंदूरी रोटियां बनाने वाले नानबाई कहलाते हैं। नानबाइयों को साहित्य में जगह मिली है। प्रसिद्ध लेखिका कृष्णा सोबती की यादगार कहानी है मियां नसीरुद्दीन। कृष्णाजी एक पत्रकार के रूप में शहर के नानबाई मियां नसीरूद्दीन का इंटरव्यू लेती हैं। इसमें खानदानी नानबाई मियां नसीरुद्दीन अपने मसीहाई अंदाज से रोटी पकाने की कला और उसमें अपनी खानदानी महारत बताते हैं। वे ऐसे इंसान का भी प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने पेशे को कला का दर्जा देते हैं और करके सीखने को असली हुनर मानते हैं।

मियां, छप्पन किस्म की रोटियां बनाने के लिए मशहूर थे। मगर पत्रकारिता को फालतू की चीज समझते थे। मियां नसीरूद्दीन ने तंदूरी रोटियां और नान बनाना अपने दादा से सीखा था। बकौल मियां नसीरूद्दीन ‘तालीम की तालीम भी बड़ी चीज होती है।‘

तंदूर के तमाम काम

रोटियों के अलावा तंदूर, तंदूरी मुर्ग, तंदूरी समोसा, तंदूरी चिकन भी खासे लोकप्रिय हैं। कोयले की सनसनाती आंच इनमें अलग किस्म का जायका भर देती हैं। जिसे सिर्फ खाकर ही महसूस किया जा सकता है। यह बात बिजली के करंट की आंच में कहां। आजकल तो ‘तंदूरी चाय’ नया शगल है, जो गैस या स्टोव पर बनी स्वाद से एकदम अलग जायका लिए होती है। यानी वैज्ञानिक जिसे जानलेवा कार्बन डाय ऑक्साइड मानते हैं, वो अनोखा स्वाद जगाने के लिए ऑक्सीन साबित होती है।

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तंदूर ने तो हिंदी में मुहावरे की शक्ल भी ले ली है। मसलन किसी किस्म का छोटा काम करना यानी खुद को तंदूर में झोंकना है। या फिर हंसते हुए तंदूर की आग में जलना। और तो और कई बार लोग तंज में यह भी कह बैठते हैं कि जरा तवे और तंदूर में फर्क करना सीखो। या फिर निकाली (रोटी) तंदूर से..निगली और हजम।

जाहिर है कि तंदूर से प्रदूषण फैलने के अपने तर्क हैं, लेकिन इसके लिए अकेले तंदूर ही जिम्मेदार नहीं हैं। पेट्रोल डीजल से चलने वाली गाडि़यों के जहरीले धुएं के आगे तो तंदूर का धुआं सेहत की कड़वी गोली के बराबर है। और तंदूर तो पेट की आग भी बुझाते हैं। मशहूर शायद नजीर अकबराबादी ने अपनी नज्म ‘रोटियां’ में भी तंदूरी रोटियों का खास तौर पर जिक्र किया है।

वो कहते हैं-

आवे तवे तनूर (तंदूर) का जिस जा ज़बां पे नाम
या चक्की चूल्हे के जहां गुलज़ार हों तमाम
वां सर झुका के कीजे दंडवत और सलाम
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मक़ाम।
पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियां
जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियां
फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियां

सरकारी हुकम अपनी जगह पर, तंदूरी के शौकीनों की परेशानी यह है कि बिना देसी तंदूर के रोटियां बदन में कैसे फूली समाएंगी? है किसी के पास इसका जवाब?

वरिष्ठ संपादक
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